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मुसलमानो को बहकाना बंद करे, देश के आम नागरिक है वह

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नरेश तोमर  —

कोई भी विरोध अचानक और स्वतःस्फूर्त नहीं होता। उसके पीछे एक खास मानसिकता काम करती है कि ‘हमारे’ साथ अन्याय हो रहा है या ‘हमें’ जानबूझकर टारगेट किया जा रहा है।

यह खुद से बना कर नहीं कह रहा। तमाम मु. मित्रों से बात करने पर यह पता चला है। वे सीरियसली यह सोचते हैं कि सरकार लगातार उन्हें ही टारगेट कर रही है। पहले तीन तलाक, फिर कश्मीर, फिर राम मंदिर और अब CAB/CAA, यह चार हो चुके हैं और आगे पाइपलाइन में तीन और हैं, NRC, जनसंख्या नियंत्रण (PC) और समान नागरिक आचार संहिता (CCC)।

मु. समुदाय की इस सोच का विश्लेषण करें और देखे कि वे कैसे अपनी गलत बातों, गलत कर्मों को भी बनाए रखना चाहते हैं।

तीन तलाक (बिद्दत) एक गैर इ. प्रथा है। दुनिया के लगभग सभी इज्जतदार इ. मुल्कों में और पाकिस्तान तक में, उन जगहों पर जहाँ शरीYAT लागू है, वहाँ यह पूर्णतः बैन है। पर भारत में यह गैर इ. और अमानवीय प्रथा लागू थी। मु. महिलाएं इस खौफ में जीने के लिए अभिशप्त थी। इस वाहियात प्रथा को खत्म करना गलत था क्या?

कश्मीर तो देश का था न? केवल मु. से इसका क्या मतलब? देश से पूरी तरह जुड़ गया, इसमें मु. को क्यों आपत्ति होनी चाहिए!

राम मंदिर का फैसला कोर्ट के रास्ते आया है। पर कुछ भोले हिंदुओं को छोड़ बाकी सबको पता है कि यह सरकार न होती तो शायद ही अंतिम निर्णय आया होता। मु. को यह अत्याचार लगता है, यह मु. को दबाने की कोशिश लगती है। पर मु. अपने ही कानूनों को, अपने ही महापुरुषों की बातें नहीं मानता। इ. कानूनों के अनुसार किसी गैर-मजहबी इबादतगाह पर खुदा का घर, अर्थात मस्जिद नहीं बननी चाहिए। मुझे अभी नाम याद नहीं आ रहा, कोई मु. महापुरुष पादरी के कहने पर भी चर्च में नमाज़ अदा करने से मना कर देता है कि यह गैर इ. और गैर अख़लाक़ी काम है। राम मंदिर का हिंदुओं के लिए क्या महत्व है, वे समझना ही नहीं चाहते। वे लाखों मस्जिदों में से एक, गैर इस्तेमालशुदा मस्जिद के चले जाने को भी हिंदुओं का, सरकार का अत्याचार मानते हैं। सरकार हिंदुओं की न सुने, कान बंद रखे, उन्हें पददलित होने का अहसास बनाए रखे, तब सही रहता, मु. को बुरा नहीं लगवाना चाहिए था। नहीं?

CAA पर इतनी बात हो चुकी है कि फिर से कुछ कहना अनावश्यक लगता है। केवल CAA पर दो तर्क हैं। पहला की यह संविधान सम्मत नहीं है और दूसरा कि जब सबको नागरिकता दे रहे हैं तो मू. को क्यों नहीं, और अगर पड़ोसी देशों की बात है तो चीन के बौद्ध, श्रीलंका के तमिल, म्यामार के रोहिंग्या क्यों नहीं।

संविधान की बात तकनीकी रूप से संवाद योग्य है और इसका प्राधिकारी कोर्ट है। कोर्ट में बात रखिये, रखा भी गया है, अगर संविधान का उल्लंघन होगा तो कोर्ट निपट लेगा। वैसे संविधान की बात करने वाले सड़क पर आगजनी करें तो पेट पकड़ कर हँसने का मन करता है।

नागरिकता देने में, इस कानून के तहत केवल उन राष्ट्रों को शामिल किया गया है जो भारत देश से सटे हुए हैं और जिनका राष्ट्र-धर्म तय है। चीन कम्युनिस्ट है, म्यामार, श्रीलंका इत्यादि लोकतांत्रिक देश हैं। वहाँ तकनीकी रूप से कैसे कोई कह सकता है कि मजहबी आधार पर अत्याचार होता है? लोकतांत्रिक देश पर ऐसा इल्जाम लगाएंगे तो विश्व समुदाय के सामने जवाब देते नहीं बनेगा। मु. को क्यों नहीं ले रहे, क्योंकि संवैधानिक रूप से मु. देश में मु. प्रताड़ित कैसे हो सकता है? मु. को मजहब के आधार पर ही तो देश तोड़कर दिया था। अब देश भी तोड़ा, उन्होंने मजहब के आधार पर अपना मुल्क बना भी लिया, और अब उन मुल्कों से उन्हीं मजहबी लोगों को नागरिकता भी दे दें? किस तर्क के आधार पर? हाँ, यह हो सकता है कि उन टुकड़ों को वापस भारत में मिला लिया जाए, तब वहाँ के सारे ही बाशिंदे भारतीय हो जाएंगे। इसके लिए आंदोलन चलाइए, देश आपके पीछे खड़ा होगा।

श्रीलंका के गृहयुद्ध में जो तमिल आए थे उन्हें विकल्प दिया गया था। जो श्रीलंका वापस गए वो गए, जो रह गए उन्हें भारतीय नागरिकता दी गई है। रोहिंग्या की समस्या जुंटा सैनिक शासन के समय से चली आई थी, अब वहां ‘आंग सान सू की’ की लोकतांत्रिक सरकार है। उनकी समस्या उन्हें ही सुलझाने दें।

अब जो है ही नहीं, उसपर छाती पीटते लोग बड़े मासूम लगते हैं। NRC आया ही नहीं, कोई ड्राफ्ट नहीं है, कोई बिल पेश नहीं हुआ, संसद में इसकी कॉपी रखी ही नहीं गई, उसका एक प्रावधान तक सामने नहीं है और सब उससे खौफ खाये बैठे हैं। क्यों है खौफ? अपनी भारतीयता पर शक है क्या? असम की NRC कोर्ट के आदेश और कांग्रेस राज के समय निश्चित हुई थी। उसकी कट ऑफ डेट ‘1971’ कोर्ट ने केवल आसाम के लिए तय की थी। आसाम पूरा देश कब से हो गया? आने दीजिए NRC। उसके कायदे, नियम, प्रावधान, शर्तें मालुम तो पड़े, तब करेंगे बहस।

यह जरूर तार्किक बात है कि नए कानून से उसके दुरुपयोग, भ्रष्टाचार का अंदेशा होगा और इसे लागू करने में टैक्स पेयर का पैसा खर्च होगा। अब बताइये कि हत्या, बलात्कार, दहेज उत्पीड़न, उत्तराधिकार जैसे सैकड़ों कानूनों का दुरुपयोग होता ही नहीं क्या? होता है न! तो क्या मरने दे बहुओं को दहेज के नाम पर? टैक्स पेयर का पैसा होता ही है खर्च करने के लिए। इसे कहाँ खर्च करना है यह तय करने के लिए ही हम सरकार बनाते हैं।

मु. को जो लगता है न कि उन्हें टारगेट किया जा रहा है, तो यह सोच इसलिए पैदा हुई है कि उन्हें हमेशा से ही पुचकारा गया है, उन्हें विशिष्टता का अहसास दिलाया गया है। आदत पड़ी है उन्हें खास होने की। उन्हें समझना होगा कि वे इस देश के नागरिक हैं, आम नागरिक। उनमें कोई खासियत नहीं है। संविधान में वे भी उतने ही विशिष्ट या उतने ही मामूली हैं, जितने बाकी सब हैं। उनके समाज में कोई खराबी होगी, तो उसे भी सुधारा जाएगा। तीन तलाक (बिद्दत) और हलाला जैसी अमानवीय प्रथाएं कैसे चालू रहने दी जा सकती थी/हैं? सरकार पुच्ची-पुच्ची खेलने के लिए नहीं होती। पिछली सरकारें यही करती थी। सरकार का काम बिना किसी मुलाहजे के सही काम करते जाना है। संविधान विरोधी काम होगा तो कोर्ट निपट लेगा।

कानून विरोधी कृत्य करने से बचें। यह देश आपका है, इसकी सम्पत्ति का नुकसान आपका नुकसान है। आप अपनी ही सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करेंगे तो आपको ऐसा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

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