आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस वर्ष पर्यावरण दिवस वैश्विक आयोजन भारत में हो रहा है। सभी लोग एक दूसरे को पर्यावरण दिवस की बधाई दे रहे हैं। इस वर्ष पर्यावरण दिवस का केंद्र प्लास्टिक प्रदूषण को मात देना है। लेकिन क्या आपको पता है की भारत का पर्यावरण दिवस किस तारीख को आता है, और वो कौन लोग है, जिन्होंने भारत के अंदर पर्यावरण को दिवस के रूप में ना बनाकर बल्कि आंदोलन के रूप में लिया और समाज से प्रदूषण रूपी राक्षस तो खत्म करने में अपनी जान तक गंवाकर पर्यावरण का रक्षा की।
भारत का पर्यावरण दिवस
सबसे पहले आपको उत्तराखण्ड लिए चलते है, जंहा पर्यापरण को बचाने के लिए साल में तीन बार हराले नाम का त्योहार मनाया जाता है। हरेला उत्तराखण्ड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा हुआ पर्व है। हरेला साल में तीन बार बोया जाता है, जिसमें सावन मास में बोए जाने वाले हरेला का विशेष महत्तव है। हरेला की कामयाबी से खुश होकर संघ ने हरेला को पूरे भारत वर्ष में मनाने का निर्णय लिया।
जानिए क्या है आरएसएस द्वारा शुरू किया गया हरेला पर्व
हरेला उत्तराखण्ड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा हुआ पर्व है। हरेला साल में तीन बार बोया जाता है, जिसमें सावन मास में बोए जाने वाले हरेला का विशेष महत्तव है। सावन मास का हरेला सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि पांच या सात प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने शीश पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया व काटा जाता है।
पर्यावरण के असली हीरो
जहां उत्तराखण्ड में पेड़ लगाने का त्योहार मनाया जाता है तो वहीं राजस्थान में पेड़ों को काटने से बचाने के आज से 400 साल पहले अमृता देवी ने अपना बलिदान दिया था, जिसे राजस्थान में एक पर्व के रूप में मनाया जाता है। अमृता देवी द्वारा दिए गए उनके बलिदान के चलते ही राजस्थान में सरकार बिश्नोई पर्यावरण दिवस का पुरस्कार भी देती है।
अमृत देवी एक बलिदान
मारवाड़ रियासत के राजा अभयसिंह मारवाड़ एक महल बनाना चाहते थे उसके लिए चूना गर्म करने के लिए पेड़ के लडकियों की आवश्कता पड़ी जिसकी खोज में राजा की सेना खेजडली गाँव पहुची। खेजडली गाँव जोधपुर से कुछ दुरी पर बसा है, पूर्व में रेगिस्तान में पानी एवं पेड़ का बहुत महत्व था ऊपर से इस गाँव की जनसंख्या विश्नोई समुदाय से थी। विश्नोई समाज संत जम्बोजी का अनुयायी है, जो प्रकृति एवं जीवो के संरक्षण को ही जीवन मान गए है। जब मारवाड़ की सेना खेजड़ी के पेड़ काटने खेजडला गाँव पहुची तब अमृता देवी नाम की एक विश्नोई महिला ने उनका विरोध किया। अमृता देवी अपनी 3 बेटियों आसू, भागु और रत्नी के साथ खेजड़ी के पेड़ से लिपट गयी तथा पेड़ काटना संत जम्बोजी तथा विश्नोई समाज के नियमो के विरुद्ध होने के कारण पेड़ो को काटने से रोक दिया। तथा बोली “सर सान्टे रूख रहे तो भी सस्तो जाण”, अगर पेड़ो की रक्षा के लिए सर भी कट जाये तो उससे भी पीछे नहीं हटना। यह खबर जब महाराज तक पहुंची तब जोधपुर के महाराज अभयसिंह ने हर हाल में लकडिया लाने का हुक्म दे दिया।
हाकिम गिरधारी सिंह भंडारी के हुक्म पर सैनिकों ने अमृता देवी और उनकी 3 बेटियों पर कुल्हाड़ी से प्रहार कर उनके टुकड़े टुकड़े कर खेजड़ी के पेड़ों को काटना शुरू किया। यह बात पास के गांवों में फेली तब 83 गाँवो से विश्नोई समाज के लोग वहा आ गए। धीरे धीरे 363 विश्नोई खेजड़ी के पेड़ो से लिपटते गए और मारवाड़ के सैनिक पेड़ो सहित उनके शरीर के टुकड़े करते गए। खेजडली गाँव की धरती खून से लाल होती चली गयी फिर भी विश्नोई समाज के लोग बड़ी संख्या में पेड़ो से लिपटते रहे यह देख मारवाड़ के हाकिम सेना को लेकर पुनः जोधपुर दरबार लोट गए।
प्रकृति संरक्षण के इस महान बलिदान की कहानी यहीं नही ठहरती। हमारे देश में ऐसे कई उदाहरण मौजूद है, जिसमें लोगों ने पर्यावरण को अपनी जान से भी ज्यादा महत्व दिया है। हमें पर्यावरण को एक दिवस के रूप में नहीं बल्कि अपने कर्तव्य के रूप मे निभाना चाहिए।
लेखक- अजय तोमर की कलम से