नई दिल्ली। यूं तो 2019 के आम चुनाव होने में लगभग एक साल का समय अभी शेष है, लेकिन चर्चायें अभी से चलने लगी हैं कि विपक्ष और सत्ता पक्ष किस तरह से अपनी रणनीति बनाने जा रहे हैं। जहां समूचा विपक्ष एकजुट होने की कोशिशों में लगा है, वहीं भारतीय जनता पार्टी विपक्ष की इस रणनीति से निपटने के लिए अपनी तैयारी में लग गई है।
2014 में तो कांग्रेस सरकार के प्रति लोगों में आक्रोश था और लोग एक बदलाव चाहते थे। लोगों को एक नई सरकार चाहते थे, जो कांग्रेस के विकल्प के तौर पर मजबूती के साथ सत्ता में आकर जनता की भलाई के लिए काम कर सके।
उस समय भारतीय जनता पार्टी कई क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठजोड़ करके केंद्र की सत्ता हासिल कर ली। लेकिन भाजपा के कुछ सहयोगी पार्टियां अपना रास्ता अलग कर ली हैं और वे अकेले चुनाव लड़ने के बारे में कह चुकी हैं और कुछ तो विपक्षियों के साथ मंच साझा कर रही हैं।
सरकार के कुछ गलत फैसलों के चलते जनता में सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ा है। जिसका कारण है कि भारतीय जनता पार्टी 2014 के बाद से जितने भी उपचुनाव हुए हैं, उसमें ज्यादातर सीटों पर चुनाव हार गई है। हालांकि, राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सरकार बनाने में कामयाब होती देखी गई है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी ज्यादातर उन्हीं राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हुई है जहां पर गैरभाजपा सरकारें थीं। अगर गुजरात को छोड़ दें तो कहीं भी दोबारा सत्ता में वापसी नहीं हुई है। गुजरात में भी कांग्रेस और भाजपा के बीच जीत-हार के बीच फासला बहुत कम था। यानि भाजपा को उम्मीद के मुताबिक सीटें नहीं हासिल हुईं।
अभी पिछले माह कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए, जहां पर सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी सरकार बनाने में नाकामयाब रही। सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते और राज्यपाल के भाजपा के बैकग्राउंड से होने के नाते पहले सरकार बनाने का मौका तो मिल गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दखल देने के बाद तख्ता पलट हो गया। भाजपा अपना बहुमत नहीं साबित कर पाई। जिसके बाद कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन जिसके पास पूर्ण बहुमत था, उन्होंने सरकार भी बना ली और बहुमत भी साबित कर दिया। लेकिन कांग्रेस को कर्नाटक में एक क्षेत्रीय पार्टी के पीछे चलना पड़ा।
लेकिन कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से दूर करके कांग्रेस विपक्ष को एक मंच पर लाने में कामयाब हो गई। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक के सभी विपक्षी नेता एक साथ एक मंच पर देखे गए। कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन वाली सरकार के शपथ ग्रहण में जिस तरह विपक्षी एका देखी गई, वह दृश्य 1977 में जनता पार्टी जब एक जुट हुई थी उस समय देखा गया था।
2018 में विपक्षियों के एक साथ एक मंच पर आने के बाद देश भर में 14 सीटों पर उपचुनाव हुए जिसमें से 4 लोकसभा की सीटें थीं और दो विधानसभा की सीटें थीं। इसमें एक लोकसभा और एक विधानसभा की सीट बचाने में भाजपा कामयाब रही। लेकिन अन्य सीटों पर विपक्षी उम्मीदवार विजय हासिल किए। यानि भाजपा केवल 30 प्रतिशत सीटें ही जीत पाई, जबकि 70 प्रतिशत सीटें वह हार गई।
वहीं, यह कहा जाता है कि दिल्ली जाने का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है तो 2014 में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर 73 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी उपचुनाव में अपनी सीटें क्यों नहीं बचा पा रही है? उस समय भाजपा के पास कौन सी जादू की छड़ी थी जो इतनी अधिक सीटें जीत गई थी, लेकिन आज ऐसा क्या हो गया कि वह उपचुनाव में अपनी सीटें गंवाती जा रही है? क्या नरेंद्र मोदी का जादू अब नहीं चल पा रहा है कि भाजपा अपनी जीत को पचा नहीं पाई और जनता की समस्याओं से मुंह मोड लिया? जो जनता अब भाजपा का साथ छोड़ती जा रही है। वहीं दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन की भी चर्चा चल रही है। इसका भी प्रभाव देखा जाएगा।
उत्तर प्रदेश में अब तक कुल पांच सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, जिसमें तीन लोकसभा और 2 विधानसभी की सीटें थीं। इनमें से चार सीटों पर विपक्ष को जीत मिली है, जबकि भाजपा अपनी एक विधानसभा की सीट बचाने में कामयाब रही है, तो क्या विपक्ष एकजुटता में इतनी ताकत आ गई है कि भाजपा उसका कोई तोड़ नहीं निकाल पा रही है या इस हार को भारतीय जनता पार्टी इतने हल्के में ले रही है कि उसको इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। और क्या बीजेपी के पास अभी भी कोई तुरुप का एक्का है, या कोई ऐसा पिटारा खुलने वाला है जिससे सभी राजनीति के वैज्ञानिक गच्चा खा जाएंगे, क्योंकि विपक्ष उपचुनाव भले जीतता जा रहा हो लेकिन उसके भी मन में शंकायें कम नहीं हैं।
खैर! यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है कि कौन किस तरह की रणनीति पर काम करेगा। लेकिन दोनों ही तरफ चिंता की लकीरें खिंची हुई हैं। तय तो जनता को करना है अगली सत्ता किसके हाथ में दी जाए!!!