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क्या कैराना की जीत से अजीत सिंह को वापस मिल पायेगी खोयी हुई सियासी जमीन?

क्या कैराना की जीत से अजीत सिंह को मिल पायेगी खोयी हुई सियासी जमीन?

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बागपत/नई दिल्ली। पूर्वांचल के बाद पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश ऐसा क्षेत्र है जिसने सूबे को सबसे ज्‍यादा मुख्‍यमंत्री दिए हैं। जिस तरह से दिल्‍ली की राजनीति यूपी से तय होती है, ठीक उसी तरह से चुनावों के दौरान सूबे की सियासी हवा का रुख काफी हद तक पश्‍चिमी उप्र का वोटर तय करता है। कहा जाता है कि यहां मुद्दों से ज्‍यादा जातीय समीकरण पार्टियों का गणित बनाते और बिगाड़ते रहे हैं। यहां जाट-मुस्‍लिम और दलित-मुस्‍लिम का समीकरण उम्‍मीदवारों संग किसी भी राजनीतिक दल की किस्‍मत बनाता और बिगाड़ता है।

मोदी की बढ़ती हुई लोकप्रियता को रोकने के लिए महागठबंधन बनाया गया, ताकि इस सियासी समीकरण को पूरी तरह से इनकैश कराया जा सके और भाजपा के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को रोका जा सके। अगर सपा-बसपा-रालोद-कांग्रेस यह कर पाने में विफल जाते तो इनके सामने अस्तित्व का संकट भी खड़ा हो जाता।

जानकार बताते हैं कि ये ही वो समीकरण था जिसने 2007 में बसपा की तो 2012 में सपा की सरकार बनवाई थी। ग्रामीण क्षेत्रों से ज्‍यादा मुस्‍लिम वोटर शहरी सीट पर हैं। यही वजह है कि 2007 के चुनावों पर निगाह डालें तो मेरठ, आगरा और अलीगढ़ की सभी शहर की सीटें मुस्‍लिम उम्‍मीदवारों के खाते में गई थी।

पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश और उससे लगे कुछ जिलों को दलितों की राजधानी कहा जाता है। 2007 और 2012 ही नहीं इससे पहले भी बसपा इस खास क्षेत्र में 20 से अधिक सीटों पर कब्‍जा करती रही है। बसपा की स्‍थिति उस वक्‍त और दमदार हो जाती है जब उसके साथ मुस्‍लिम वोटर खुलकर आ जाता है। इसके अलावा जाट भी कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाता है। इन सबके साथ अगर जाट वोट भी आ जाए तो महागठबंधन को एकतरफा जीत मिलनी तय हो जाएगा।

फिलहाल अजीत सिंह का जो प्रयास रहा है उससे यह लगता है कि वे चौधरी साहब के पुराने समीकरण की तरफ लौट रहे हैं और सभी किसानों को एकजुट कर रहे हैं, जिसका परिणाम इस उपचुनाव में देखा गया है। आज भी पश्‍चिमी उप्र में चौधरी चरण सिंह वाला प्रभाव देखा जाता है। करीब 20 से 25 सीट ऐसी हैं, जहां जाट वोटर के चलते रालोद उलटफेर करने वाली पार्टी मानी जाती है।

लेकिन इसके साथ एक सवाल यह भी है कि महागठबंधन में अजीत सिंह को कितना महत्व दिया जाता है। हालांकि, कैराना सीट जीतने के बाद अजीत सिंह की स्थिति में थोड़ा सुधार जरूर आएगा और उनका महत्व भी बढ़ेगा। लेकिन गठबंधन क्या निर्णय लेता है और अजीत सिंह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कितनी सीटें मिलती हैं। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा, क्योंकि मायावती का प्रभाव इस क्षेत्र में कम नहीं है। हां, इतना तो कहा जा सकता है कि जहां पर अजीत सिंह की पार्टी अपने अस्तित्व के लिए लड़ाई लड़ रही थी, अब कैराना में मिली जीत से आशा की एक किरण जरूर मिल गई है।

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