नरेश तोमर(दिल्ली):—जामडोली स्थित केशव विद्यापीठ में सेवा भारती के तृतीय राष्ट्रीय सेवा संगम के समापन सत्र में संबोधित कर रहे थे. उन्होंने देश भर से आए कार्यकर्ताओं को सेवा साधक की संज्ञा देते हुए कहा कि भले ही हम छोटी इकाई पर कार्य कर रहे हैं, लेकिन हमारा विचार वैश्विक होना चाहिए. भारत तभी समर्थ, समृद्ध और स्वाभिमानी हो सकता है, जब भारत का प्रत्येक व्यक्ति समर्थ, समृद्ध और स्वाभिमानी हो.
सरकार्यवाह ने समाज के उस हिस्से को भी सम्बल देने की आवश्यकता पर बल दिया जो हाशिये पर माना जाता है. उन्होंने कुष्ठ रोगियों व वेश्यावृत्ति के लिए विवश महिलाओं के बच्चों के लिए चिंता जताते हुए कहा कि समाज के इस हिस्से को सशक्त करने की चिंता भी समाज को करनी होगी, इसके लिए सरकार के भरोसे बैठना उचित नहीं. हाशिये पर माने जाने वाले समाज के इस हिस्से के प्रति सोच को बदलने व उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए सामूहिक सामाजिक प्रयास करने होंगे. “देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें” की भावना जाग्रत करते हुए हमें सेवित को भी इतना सशक्त करना होगा कि वह भी सेवा करने योग्य हो जाए.
उन्होंने सेवा संगम को पुण्य स्थल बताते हुए कहा कि जिस प्रकार संगम में डुबकी लगाने से पुण्य प्राप्त होता है, उसी प्रकार उन्हें इस सेवा संगम में आने पर पुण्य प्राप्त हुआ है. ऐसे संगम ऊर्जा में वृद्धि करते हैं और नया सीखने का भी अवसर प्रदान करते हैं. साथ ही, यदि कुछ विफलताओं को लेकर मन कमजोर होता है, तब उसमें भी ऐसे संगम सकारात्मक ऊर्जा भरते हैं.
उन्होंने कहा कि किसी भी कार्य के परिणाम के परिमाण में ईश्वर कृपा का भी महत्व होता है, हमें हमारे प्रयासों में किसी तरह की कमी नहीं रखनी चाहिए. उन्होंने भगवद्गीता का श्लोक, ‘‘अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्. विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्’’ उद्धृत करते हुए कहा कि सेवाकार्य का सबसे पहला चरण सेवा के विचार का अधिष्ठान है. दूसरा चरण, उस कार्य को करने के लिए साधनों का है. तीसरा चरण कार्य को मूर्तरूप देने का है. इसके बाद चौथा चरण ईश्वरीय कृपा का है. जिस तरह किसान खेत जोतता है, बुवाई करता है, लेकिन अंत में फसल के अनुकूल बारिश, सर्दी, गर्मी ईश्वर प्रदान करता है. हमें सेवा का कार्य ईश्वरीय कार्य समझकर करना है.
उन्होंने स्वामी विवेकानंद द्वारा कहे कथन उद्धृत करते हुए कहा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अज्ञानी और अशिक्षित लोगों की पीड़ा को नहीं सुनने वाले द्रोही होते हैं. विवेकानंद कहते थे, मैं उस ईश्वर की आराधना करता हूं, जिसे मूर्ख लोग मनुष्य कहते हैं. हमें हर मनुष्य में परमात्मा का अंश मानकर सेवाकार्य करना है.
सरकार्यवाह ने सेवा साधकों को अपने कार्य की समीक्षा भी निरंतर करने की आवश्यकता बताई. समीक्षा से आगे का मार्ग व लक्ष्य प्रशस्त होता है. उन्होंने अकेले के बजाय समूह बनाकर कार्य करने को अधिक परिणामकारी बताते हुए कहा कि मिलकर किए जाने वाले काम में त्रुटियां अधिक नहीं होतीं.
उन्होंने कहा कि हममें सेवा का गुण स्वाभाविक है. सम्पूर्ण भारतभूमि सेवारूपी एक ट्रस्ट है और हम सभी उसके ट्रस्टी. यह हमारा व्यावहारिक अध्यात्म है. इसकी अनुभूति के लिए सेवा में सच्चा मन रखना होगा.