कौस्तुभ नारायण मिश्र, पहली बात तो यह कि विज्ञान अन्तिम सत्य नहीं है। जो लोग यह मानते हैं कि विज्ञान ही सब कुछ है और वह सर्वोपरि है, उनकी बुद्धि और विवेक पर आप दया कर सकते हैं; क्योंकि विज्ञान किसी चीज का सृजन नहीं करता बल्कि वह प्रकृति में विद्यमान नियमों को पता लगाकर सार्वजनिक करता है, अर्थात सबको बताता है। इसलिये विज्ञान एक विशेष प्रकार का ज्ञान होता है, जो प्रकृति के नियमों की खोज करता है और उस खोज के सहारे उसके व्यवहारिक उपयोग हेतु मार्ग निर्धारण करता है। इसका आशय यह हुआ कि प्रकृति सर्वोपरि है और प्रकृति का निर्माण करने वाला उससे भी ऊपर है अर्थात प्रकृति का निर्माण करने वाला सर्वोत्तम उसके बाद प्रकृति उसके बाद इन दोनों के रहस्य को समझने वाला दर्शन; उसके बाद इन दोनों के सौन्दर्य, आन्तरिक एवं वाह्य स्वरूप को प्रकट करने वाला साहित्य एवं कला का स्थान आता है। इसके बाद प्रकृति के अलौकिक सृजनकर्ता एवं प्रकृति (सृष्टि का लौकिक रूप) के इतिहास और भूगोल का स्थान आता है। इन पाँच स्तरों के बाद दर्शन, अपने सहारे विचार के प्रकट होने पर विज्ञान को व्यावहारिक आधार प्रदान करता है। फिर आगे चलकर सुविधानुसार विभिन्न उप विभागों या शाखाओं अर्थात ज्ञान (सामुच्चयिक ज्ञान) और विज्ञान (विशेष ज्ञान) में सुविधानुसार विभक्त हो जाता है। इसलिये विज्ञान को अन्तिम रूप मेम एक विशेष ज्ञान मानना ही समीचीन है।
दूसरी बात तीन चीजों को ध्यान में रखना चाहिये। शिक्षा ज्ञान विद्या और इन तीनों से उपजा शास्त्र का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है, संस्कार सभ्यता संस्कृति और धर्म का। तीसरा पक्ष है, पूजा पद्धति कर्मकाण्ड लोकाचार रीति रिवाज आदि का। इन तीनों को एक साथ और फिर अलग-अलग ठीक प्रकार से समझना आवश्यक है। इन तीनों पक्षों को एक साथ खिचड़ी पकाकर समझने की कोशिश कत्तई नहीं करना चाहिये; ज्ञान और विद्या परम्परा कोई व्यक्ति ऐसा करता भी नहीं। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि- सूचना, शिक्षा, ज्ञान, विद्या अलग-अलग और स्वतन्त्र अर्थ और प्रयोजन रखते हैं।
तीसरी बात जब कोई व्यक्ति अपनी भाषा, अपनी पन्थ परम्परा, अपनी पूजा पद्धति, रीति रिवाज और लोकाचार से अलग हटकर ऐसी ही किसी अन्य विधा में सिद्धता हासिल करना चाहता है और सिद्धता हासिल भी कर लेता है। ऐसी स्थिति में उसका केवल दो ही लक्ष्य होता है, पहला- वह जिस पन्थ या पूजा पद्धति का है, उससे सन्तुष्ट नहीं है और उससे ऊब चुका है। किसी दूसरे में उसका मन लगता है, वह उसी में रहना चाहता है। दूसरा- एक और लक्ष्य हो सकता है कि वह दूसरे को अपने से नीचा देखता है या नीचा दिखाना चाहता है या उसकी कमियों को जानकर उसके खिलाफ एक वातावरण करना खड़ा करना चाहता है। इतिहास में इन दोनों प्रकार की घटनाएँ घट चुकी हैं। इन दो के अलावे और तीसरी कोई बात नहीं होती है। बात केवल काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का नहीं है। बात इस बात का भी नहीं है कि महामना मदन मोहन मालवीय उसकी नियम व्यवस्था किस किस बात का उल्लेख किये हैं। बात यह भी नहीं है कि सरकार की नियुक्ति प्रक्रिया में आज की वैधानिकता क्या है और क्या नहीं है? यहाँ मुख्य विषय यह है कि- डॉक्टर फिरोज खान की नियुक्ति इसलिये चर्चा का विषय बनी और इसीलिए विचारणीय है; क्योंकि कुछ लोगों ने इसको इसलिये हवा दिया कि इसी बहाने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े विचारधारा के लोगों के प्रति समाज में दुर्भावना फैलायी जा सके; लोगों को यह लगेगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके लोग ही इसका विरोध कर रहे हैं। दूसरे कुछ ऐसे लोग भी इसके विरोधी हैं जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा धर्म-दर्शन कला साहित्य कर्मकाण्ड लोकाचार ज्ञान और विद्या शास्त्र आदि को रत्ती भर भी समझते नहीं और भावना में आकर किसी चीज का विरोध करने लगते हैं; पक्ष और विपक्ष बन जाते हैं। यह दोनों बातें कतई ठीक नहीं है। पहले प्रकार के लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधी छद्मबेशी लोग हैं और दूसरे प्रकार के लोग अदूरदर्शी और नासमझ लोग हैं। मैं यहाँ यह नहीं कह रहा हूँ कि- डॉक्टर फिरोज खान का विरोध होना चाहिये या नहीं होना चाहिये; लेकिन मैं जरूर कहना चाहता हूँ कि संस्कृत का अध्ययन करके धर्म-दर्शन संकाय का प्राध्यापक होकर यदि आप उसकी कमियों को निकालने, गलत व्याख्या करके दुष्प्रचार और पूर्वाग्रह के लिये वहाँ हैं तो, आपको वहाँ नहीं होना चाहिये और यदि आप वहाँ उस विधा में रमने और आगे बढ़ाने के लिये हैं, तो आप किसी भी मत पन्थ जाति मजहब और सम्प्रदाय के होकर भी आपको वहाँ रहने का पूरा अधिकार है।
बात यह भी नहीं है कि विश्वविद्यालय या कोई संस्थान मन्दिर है या नहीं! प्रत्येक वह स्थान मन्दिर होता है, जिसके प्रति हम श्रद्धा और समर्पण रखते हैं। अनेक बार किसी के लिये उसकी माँ का आँचल मन्दिर जैसा होता है; अनेक बार माता-पिता का चरण मन्दिर के समान होता है; अनेक बार उसकी मातृभूमि मन्दिर के समान होती है; अनेक बार उसका गुरु मन्दिर से बढ़कर होता है। ऐसी न जाने कितनी चीजों की गिनती कराई जा सकती है। इस अर्थ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को निश्चित रूप से श्रेष्ठतम मन्दिर निश्चित रूप से कहा जा सकता है। ऐसा कहने पर जिसको आपत्ति है, निश्चित रूप से उसे न तो विश्वविद्यालय जैसी संस्था की प्रकृति एवं स्वरूप का ज्ञान है और ना ही मन्दिर के मूल्य और उसके पारलौकिक महत्व का ज्ञान है। यह स्पष्ट रूप से जानना और समझना चाहिये कि, प्रकृति और प्रकृति के नियामक सत्ता के प्रति श्रद्धा और समर्पण तथा इसके दार्शनिक मूल्य ही मन्दिर के भाव की उत्पति करता है। इस समझ और ज्ञान, इस बुद्धि और विवेक के अध्ययन को ही धर्मशास्त्र का अध्ययन और इस अध्ययन भारत में ठीक से समझने की भाषा का नाम संस्कृत है। इस श्रद्धा और समर्पण की विश्वासपूर्वक तुष्टि सन्तुष्टि और इनकी सम्पुष्टि हेतु कर्मकाण्ड का विधान और उपयोग होता है।
कुछ दिनों से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ‘संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय’ के डा फिरोज खान की नियुक्ति के विरोध में आन्दोलन चल रहा है। इसको इलेक्ट्रॉनिक प्रिन्ट और समाज संचार माध्यमों ने भी गलत प्रचार और प्रसिद्धि दिया है। देश के अनेक राष्ट्रवादी संगठनों के पदाधिकारियों को भी इसमें शामिल माना गया तथा स्थान स्थान पर उनसे भी इस आन्दोलन के सन्दर्भ में प्रश्न पूछे गये। लेकिन जहाँ तक मैं समझता और जानता हूँ, किसी को इस बात को लेकर कोई भ्रम होने का कोई कारण नहीं है। यद्यपि मैं कोई अधिकृत व्यक्तव्य और स्पष्टीकरण नहीं दे रहा हूँ और न ही इस विषय में मेरा यहाँ कोई पक्ष है; जब तक कि मैं यह न जान और समझ लूँ कि, नियुक्त प्राध्यापक का कोई छिपा एजेण्डा है या नहीं!?
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की मूल प्रकृति स्वरूप और इतिहास को समझने से पहले समझना होगा कि फिरोज खान की नियुक्ति ‘संस्कृत विद्या धर्मं विज्ञान संकाय’ के अन्तर्गत साहित्य विभाग में हुई है। नियमानुसार किसी भी संकाय में कई विभाग होते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के ‘संस्कृत विद्या धर्मं विज्ञान संकाय’ में भी साहित्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र, वेद इत्यादि अनेक विभाग हैं। यदि किसी मुसलमान ने साहित्य पढ़ाया तो कौनसा संकट आ गया? यदि उसका उस साहित्य और उसकी विषय वस्तु के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। कुछ लोग संचार माध्यमों में इस बात का नकारात्मक प्रचार किये और कर रहें हैं कि डॉ फिरोज खान अब कार्मकाण्ड पढ़ायेंगे, यज्ञ करवायेंगे? आदि। नियुक्ति प्रक्रिया नियमानुसार है और उस पर सभी नियुक्ति प्राधिकारियों के हस्ताक्षर हैं। क्या वे किसी मुसलमान को कर्मकाण्ड पढ़ाने या यज्ञ कराने के लिए नियुक्त करेंगे? सबके विभाग अलग-अलग हैं और सभी का अपने विषय में अपनी सिद्धता है। वे अपने अपने विषयों का अपनी सक्षमता के अनुसार अध्ययन-अध्यापन करते हैं। ऐसा ही एक भ्रम फैलाया जाता है कि धर्मंशास्त्र इस विषय से सम्बद्धित है। ऐसा वे लोग करते हैं, जो धर्म को रिलीजन समझते हैं। धर्म अर्थात रिलिजन नहीं है। भारत एक पुरातन- चिरन्तन- सनातन राष्ट्र है। लोक और लोक से निर्मित समाज को नियन्त्रित करने के लिये इस राष्ट्र में अलग-अलग काल में अलग- अलग सम्विधान रहे हैं। इन्हीं को स्मृति ग्रन्थ कहते हैं। इस विषय के सम्बन्ध में सभी जिम्मेदार लोगों को अपना समझ, ज्ञान, बुद्धि, विवेक को विस्तृत और गहन करना चाहिये; अन्यथा वे नकारात्मक प्रचार के स्वयं भी कारण और कारक बनेंगे।