सीबीआई के नामांतरण का वक़्त : पॉलिटिकल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन (पीबीआई) आजादी से कुछ साल पहले देश में रिश्वत, युद्ध और आपूर्ति विभाग में होने वाले भ्रष्ट्राचार की जाँच करने के लिए एक सेंट्रल एजेंसी की आवश्यकता महसूस हुई। इसी क्रम में 1941 में स्पेशल पुलिस एस्टेबिलिशमेंट के नाम से सेंट्रल गवर्नमेंट पुलिस फ़ोर्स का गठन हुआ। तब इसका मुख्यालय लाहौर में होता था। इसके पहले अधीक्षक कुर्बान अली खान थे जो भारत विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए। 1946 में इस एजेंसी को केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन करके Delhi Special Police Establishment Act (DSPE) पारित कर संचालित किया जाने लगा। उसी DSPE का नाम एक अप्रैल 1963 में बदलकर सीबीआई (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन) कर दिया गया और पहले निदेशक के रूप में डीपी कोहली नियुक्त हुए जो कि देश के नामी गिरामी आईपीएस अफसर थे। इस एजेंसी को बनाने के पीछे मकसद यह था कि ऐसे केस जो बहुत जटिल हो और किसी राज्य पुलिस के पास ऐसे मामलों का पर्दाफ़ाश करने के लिए संसाधन और विशेषज्ञ ना हो, तो फिर इन्हें सीबीआई को सौंपा जायेगा। लेकिन 80 का दशक आते आते सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने इस एजेंसी को जघन्य अपराधों की जाँच देने का सिलसिला भी शुरू हो गया। बढ़ते दबाव के चलते 1987 में सीबीआई को दो हिस्सों एंटी क्रपशन ब्रांच और स्पेशल क्राइम ब्रांच में बाँट दिया गया। तब से लेकर अब तक सीबीआई ने एक लम्बा सफर तय किया, लेकिन पिछले तीन दशक में इस एजेंसी की साख पर कई बार बाटता लगा। मुझे याद है जून 1997 में प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने सीबीआई निदेशक जोगिन्दर सिंह को सार्वजानिक स्थान पर अपनी कार में बैठा लिया तो भीषण प्रतिक्रिया हुई थी, क्योंकि लोग सीबीआई को निष्पक्ष भाव से पसंद करते थे। नतीजा यह हुआ कि जोगिन्दर सिंह एक साल ही पद पर रह पाए फिर उन्हें ससम्मान कैबिनेट सचिवालय में तैनाती दी गयी, और यह तब हुआ जब जोगिन्दर सिंह की गिनती देश के बेहतरीन अफसरों में होती थी और वह एक शानदार ट्रैक रिकॉर्ड के मालिक थे। लेकिन पिछले तीन दशक में बार बार इस एजेंसी का तिलिस्म टूटता दिखा। चाहे आरुषि तलवार जैसे जघन्य अपराध के किताब की तरह खुले केस हो या फिर कोल गेट घोटाला हो, तमाम ऐसे मामले हैं जब सीबीआई ने कोर्ट में मुँह की खाई। UPA सरकार में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता कहा तो बहुत जगहंसाई हुई। तक़रीबन अब जनमानस के पटल पर यह बात बैठ गयी है कि जांचो में जितना राजनीतिक और आंतरिक हस्तक्षेप सीबीआई में है उतना तो सिविल पुलिस में भी नहीं है। मुझे याद नहीं कि सीबीआई की बेहतरीन जाँच के आधार पर किसी बहुत बड़े केस में यह एजेंसी जीत गयी हो। जब भी सीबीआई किसी मामले की जाँच शुरू करती है तब बड़ा हल्ला होता है, लेकिन कितने मामलो की मजबूत पैरोकारी करके दोषियों का सजा दिलवाती है यह असल प्रश्न है। ऐसे भी मामले है जिनमे समय सा चार्जशीट दाखिल नहीं होने से अपराधी छूट जाते है। पुराने निदेशक रंजीत सिन्हा की विदाई समय से पहले हुई तो उसकी जड़ में भी भ्रष्टाचार था। मोईन कुरैशी जैसे कसाई का सीबीआई के अफसरों के मुँह में ठूस ठूस कर रकम भरना शर्मनाक है। यह एजेंसी अब केवल सत्ता से बाहर बैठे लोगो को डराने भर के लिए रह गयी है, मौजूदा निदेशक अलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की घिनौनी लड़ाई सीबीआई के लिए अलार्मिंग सिचुएशन है और इस बात का स्पष्ट सिग्नल भी है कि यह एजेंसी ठीक उस विशाल वृक्ष की तरह है जो खड़ा तो है लेकिन अंदर से दीमक ने उसे इतना खोखला कर दिया है कि वह किसी भी दिन जमींदोज हो सकता है। और ये जो सीबीआई बनाम सीबीआई लड़ाई चल रही है वो इस एजेंसी के धराशायी होने की पटकथा लिखे जाने की घोर शुरुआत है। वैसे भी इतना राजनीतिककरण होने के बाद इस एजेंसी का नाम सीबीआई से बदलकर पीबीआई (पॉलिटिकल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन) रख देना चाहिए।