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सुप्रीम कोर्ट के फैसला से प्रमोशन में आरक्षण का रास्ता साफ

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सुप्रीम कोर्ट ने आज सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण के फैसले को सात जजों की संवैधानिक बेंच को भेजने से मना कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि साल 2006 में आया नागराज की फैसला सही थी और इसलिए उस पर दोबारा से विचार नहीं किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के लिए कोई डेटा जमा करने की जरूरत नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में आज पांच जजों की बेंच जिसमें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रोहिंग्टन नरीमन, जस्टिस संजय कौल और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं उन्होंने यह फैसला दिया था।

क्या है नागराज बनाम भारत संघ का फैसला

अक्टूबर 2006 में नागराज बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान बेंच ने फैसला दिया था कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति वर्गों को संविधान के अनुच्छेद 16 (4क) और 16 (4ख) के अंतर्गत आरक्षण दिया जा सकता है, पर इसके लिए किसी भी सरकार को कुछ मानदंडों को पूरा करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने मानक तय किए थे वो थो कि जिस समुदाय को ये लाभ दिया जा रहा है उसका प्रतिनिधित्व क्या वाकई बहुत कम है? दूसरा क्या उम्मीदवार को नियुक्ति में आरक्षण का लाभ लेने के बाद भी आरक्षण की ज़रूरत है? तीसरा एक जूनियर अफसर को सीनियर बनाने से काम पर कितना फर्क पड़ेगा।

संविधान बेंच ने नागराज मामले में जो फैसले दिया था इसमें यह भी कहा गया था कि राज्य को यह देखना होगा कि आरक्षण 50 फीसदी की निर्धारित सीमा से आगे न बढ़े। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा सरकारी नौकरियों की पदोन्नतियों में एससी-एसटी आरक्षण में लागू नहीं की जा सकती, जैसा अन्य पिछड़ा वर्ग में क्रीमी लेयर को लेकर पहले के दो फैसलों 1992 के इंद्रा साहनी व अन्य बनाम केंद्र सरकार (मंडल आयोग फैसला) और 2005 के ईवी चिन्नैय्या बनाम आंध्र प्रदेश के फैसले में कहा गया था।

नागराज के फैसले के 12 साल बाद भी सरकार इन वर्गों के के वो आंकड़े पेश नहीं कर पाई है जिसका ज़िक्र नागराज के फैसले में किया गया था, जिस वजह से इन वर्गों के पदोन्नति में आरक्षण पर लगभग रोक लग गयी है। इन आकड़ो को पेश करना ही सरकार के लिए ढ़ेरी खीर साबित हो रहा था। इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट के फैसले और भारतीय संविधान एक बड़ी वजह है।

दरअसल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा किसी जाति के अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति होने की अधिसूचना जारी करना स्वयं में ही उस जाति के पिछड़े होने का प्रमाण है। इसके अतिरिक्त यदि सरकारी नौकरियों में पदों में नियुक्ति करते समय एससी-एसटी समुदाय को पिछड़ा माना गया है, तो पदोन्नति के समय दोबारा पिछड़ापन जांचने की आवश्यकता उत्पन्न नहीं होती है।

दूसरा नागराज मामले में संविधान पीठ ने कहा था की अनुच्छेद 16(4 क) और 16 (4 ख) का आधार अनुच्छेद 16 (4) है, जो मौलिक अधिकार नहीं है। लेकिन अनुच्छेद 16 (4 क) और 16 (4 ख) का आधार अनुच्छेद 16 (4) नहीं, बल्कि अनुच्छेद 16 (1) है। अनुच्छेद 16 (1) सरकारी नौकरियों में अवसर पाने में बराबरी देने वाला प्रावधान है।

अब सवाल यही खड़ा होता है। दरअसल, 1975 में केरल राज्य बनाम एनएम थॉमस मामले में सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की पीठ ने यह निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 14, 15, और 16 को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए, जिनका मूल आधार बराबरी का अधिकार है। अनुच्छेद 16 (4) अवसरों की समानता को दर्शाता है। इस हिसाब से अनुच्छेद 16 (1) और अनुच्छेद 14, 15 का विस्तार है, तो अनुछेद 16 (4 क) और 16 (4 ख) भी इन्हीं प्रावधानों का विस्तार हैं। इन सभी प्रावधानों का एक ही उद्देश्य है– आरक्षण द्वारा सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को अवसरों की समानता का अधिकार देना ताकि यह वर्ग समाज में सबके बराबर आ सके।

साथ ही नागराज केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक बहुत बड़ी बात कही। वो ये कि ‘क्रीमी लेयर’ का सिद्धांत एस.सी. और एस.टी. पर लागू नहीं होता। मंडल केस और 2005 में आए ईवी चिनैया केस में सुप्रीम कोर्ट कह चुका था कि पिछड़े वर्गों में जो लोग पढ़ाई और पैसे के लिहाज़ से सक्षम हों, उन्हें आरक्षण का लाभ न मिले। लेकिन ये बात सिर्फ ओबीसी समुदाय के लिए कही गई थी। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ये भी जोड़ा कि ये ज़रूरी नहीं कि सरकारें (केंद्र और राज्य) नौकरियों में आरक्षण दें ही।

सुप्रीम कोर्ट ने आज कहा कि राज्य सरकार को SC/ST समाज के पिछड़ेपन और सार्वजनिक रोजगार पर मात्रात्मक डेटा जमा करने की जरूरत नहीं है।

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