देश आजाद हो चुका था और दो हिस्सों में भी बंट गया था। पहला हिंदुस्तान और दुसरा पाकिस्तान और आजादी से पहले यह समझौता हुआ की तबादला-ए-आबादी नहीं होगी मतलब जो मुसलमान भारत में रहना चाहता है वो भारत में रह सकता है और जो हिंदू पाकिस्तान में रहना चाहता है वो पाकिस्तान में रह सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ…. 16 सितंबर 1947 का दिन शायद ही कोई भूल पाए। 16 सितंबर का दिन और सुबह के ग्यारह बजे हैं, बारिश बिलकुल नहीं है, आकाश एकदम साफ़ है, स्टेशन पर लगभग सौ-दो सौ मुसलमान हाथों में तलवार और चाकू लेकर खड़े हैं,
अमृतसर और आगे अम्बाला जाने वाली यह ट्रेन धीरे-धीरे स्टेशन में प्रवेश कर रही है, पूरे प्लेटफार्म पर इन हथियारबंद मुसलमानों के अलावा एक भी आदमी नहीं है, स्टेशन मास्टर अपने केबिन का दरवाजा बन्द करके अंदर छिपा हुआ है, उसका असिस्टेंट, रेलवे के सिस्टम पर मोर्स कोड का उपयोग करते हुए अपने मुख्यालय में यह समाचार भेजने का प्रयास कर रहा है, परन्तु उसके भी हाथ कांप रहे हैं. इसी कारण कड़-कट, कड़-कट की आवाज़ के साथ ‘डिड-डैश’ की भाषा में भेजा जाने वाला टेलीग्राफिक सन्देश बार-बार गलत हो रहा है।
गाड़ी प्लेटफार्म पर आने तक भयानक शान्ति छाई हुई है, ट्रेन धीरे-धीरे अंदर आती है, एक जोरदार सीटी बजती है और एक ही क्षण में, ‘दीन-दीन, अल्ला-हू-अकबर’ के गगनभेदी नारों के साथ, … ‘मारो-काटो-सालों को’ ऐसी आवाजें सुनाई देने लगती हैं। इस ट्रेन से शरणार्थी के रूप में मुल्तान और पश्चिम पंजाब के गांवों से अपना सब कुछ गंवाकर आए हुए हिंदुओं और सिखों को डिब्बों से बाहर खींचकर निकाला जाता है, धारदार तलवारों से वहीं के वही उनकी गर्दन उड़ा दी जाती है,
अपने ऑफिस की खिड़की के दरारों से झांकता हुआ भयभीत स्टेशन मास्टर यह सब देख रहा है, लेकिन कुछ कर नहीं सकता. जाने-अनजाने वह लाशें गिनने लगता है, अभी तक मुसलमानों ने पहले ही झटके में 21 सिखों और हिंदुओं को मार डाला है, आक्रोश व्यक्त करती हुई उनकी महिलाओं और लड़कियों को मुस्लिम गुड़ें अपने कन्धों पर उठाकर भागते हुए विजयी उल्लास व्यक्त कर रहे हैं, पता नहीं और कितने हिन्दू-सिखों को मारा गया होगा। वह अपने असिस्टेंट से कहता है कि ‘यह सारी जानकारी टेलीग्राफ के माध्यम से मुख्यालय भेजो.’
परन्तु पंजाब में सेंसरशिप लागू होने के कारण ऐसी न जाने कितनी ख़बरों को दबा दिया गया है…!