दरअसल यह बात आजादी के कुछ महींनों पहले की है। जब कश्मीर के महाराजा ने उनके प्रधानमंत्री रामचंद्र काक को बर्खास्त कर दिया था। आपको बता दें की प्रधानमंत्री के रूप में काक का केवल दो वर्षों का कार्यकाल अत्यधिक विवादित रहा था। क्योंकि रामचंद्र काक ने कांग्रेस और जवाहरलाल नेहरू से खुली दुश्मनी मोल ले ली थी।
कुछ माहिने पहले, जब 19 से 23 जून के बीच लॉर्ड माउंटबेटन काश्मीर में प्रवास पर आए थे, तब उन्होंने महाराज से निवेदन किया था कि कश्मीर का विलीनीकरण पाकिस्तान में कर दिया जाए। उस समय महाराज ने यह सलाह सिरे से ठुकरा दी थी। लेकिन इसके बाद काक महाशय ने यह पैंतरा चला था कि कश्मीर का विलीनीकरण यदि पाकिस्तान में नहीं हो रहा हो, तो वह भारत में भी नहीं होना चाहिए। काक ने महाराज को सलाह दी कि कश्मीर को स्वतंत्र ही रखें.
नौ-दस दिन पहले, यदि गांधीजी ने अपनी श्रीनगर यात्रा में स्पष्ट रूप से अपना मत रखा होता कि ‘कश्मीर का विलय भारत में ही होना चाहिए’, तो संभवत कई बातें बेहद सरल हो जातीं। और आज हमें कश्मीर को लेकर दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता। लेकिन गांधीजी के लिए भारत और पाकिस्तान दोनों ही उनकी अपनी संतानें लगती थीं, इसलिए उन्होंने कश्मीर के विलीनीकरण के बारे में कुछ भी नहीं कहा। नेहरू के आग्रह पर गांधीजी ने ‘रामचंद्र काक को निकाल दीजिए’, इतना ही सुझाव महाराज को दिया।
गांधीजी की इस सलाह का सम्मान करते हुए महाराजा हरिसिंह ने उसे अमल में लाया और मूलतः हिमाचल प्रदेश के परन्तु महाराज के रिश्तेदार, ‘जनक सिंह’ को कश्मीर का नया प्रधानमंत्री घोषित किया। रामचंद्र काक ने भागने का प्रयास किया, परन्तु वे सफल नहीं हुए। महाराजा हरिसिंह ने उन्हें घर में ही नजरबन्द रखने का आदेश दिया। और यहां से ही कश्मीर की राजनीती में बदलाव आया।