पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के नागपुर में आर.एस.एस. मुख्यालय में एक समारोह में जाने के फैसले का रहस्य धीरे-धीरे खुलना शुरू हो गया है।
क्या थी पूर्व राष्ट्रपति की आशा?
मुखर्जी को आशा थी कि पार्टी नेता और नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी उनके अनुभव के आधार पर नियमित रूप से राजनीतिक मामलों पर उनकी सलाह लेंगे।यद्यपि पूर्व राष्ट्रपति पद छोडऩे के बाद सक्रिय राजनीति में नहीं लौटते मगर उनको उम्मीद थी कि कांग्रेस नेतृत्व अनौपचारिक रूप से उनसे सलाह लेता रहेगा क्योंकि दादा के पास बहुत-सी जानकारी है पर पिछले वर्ष जुलाई में राष्ट्रपति पद से विमुक्त होने के बाद से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।मुखर्जी के पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी,ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक,मुलायम सिंह यादव और अन्य नेताओं के साथ अच्छे संबंध हैं मगर न तो सोनिया गांधी और न ही राहुल गांधी ने मुखर्जी के प्रति अधिक रुचि दिखाई जैसी कि उनको उम्मीद थी।
ऐसा क्या हुआ जिससे मुखर्जी हुए बीजेपी के करीब?
इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अरुण जेतली, प्रकाश जावड़ेकर, रविशंकर प्रसाद सहित राजग के अन्य नेता उनसे नियमित रूप से मिलते रहे। अगर खबरों पर विश्वास किया जाए तो नितिन गडकरी ने आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत और प्रणव मुखर्जी के बीच नियमित बैठकों का आधार बनाया था।भागवत और मुखर्जी के बीच कम से कम 4 बैठकें हो चुकी हैं।एक तरफ ये सभी नेता मुखर्जी से मुलाकातें करते रहे दूसरी तरफ राहुल गांधी ने पार्टी के वरिष्ठतम पदाधिकारी से केवल एक बार मुलाकात की।
क्या कहना है कांग्रेसियों का?
कांग्रेसी सूत्रों का कहना है कि प्रणव मुखर्जी जल्दी ही आपा खो देते हैं और खुद को सर्वज्ञाता मानते हैं। उनके इसी व्यवहार ने राहुल गांधी को उनसे दूर रखा। दूसरा कारण यह है कि गांधी परिवार ने प्रणव मुखर्जी पर कभी विश्वास नहीं किया।यही प्रमुख कारण है कि उन्हें 2004 में प्रधानमंत्री के पद से वंचित रखा गया।उन्हें वित्त मंत्री भी नहीं बनाया गया और विदेश मंत्री का पद भी छीन लिया गया।
अब क्या है फैसला?
कांग्रेस नेतृत्व द्वारा उपेक्षित किए जाने के बाद प्रणव मुखर्जी ने आर.एस.एस. से बातचीत करने का फैसला किया। मुखर्जी के इस फैसले से कांग्रेस में उनके महत्वाकांक्षी पारिवारिक सदस्यों को कितनी मदद मिलेगी, यह अभी देखना बाकी है या फिर क्या वे भी कांग्रेस को अलविदा कहेंगे।