कैराना। आज देश भर में 14 उपचुनाव के नतीजे घोषित हुए हैं। इसमें से 12 पर विपक्ष और 2 पर भाजपा को जीत हासिल हुई है। इन 14 सीटों में से दो सीटे उत्तर प्रदेश की थीं। कैराना और नूरपुर। कैराना लोकसभा सीट पर भाजपा सांसद बाबू हुकुम सिंह की मृत्यु के बाद खाली हुई थी और नूरपुर विधानसभा सीट भी भाजपा विधायक की सड़क दुर्घटना में मौत के बाद खाली हुई थी। कैराना सीट पर तबस्सुम हसन को जीत मिली तो नूरपुर विधानसभा सीट पर सपा प्रत्य़ाशी विजयी हुआ है। ये चुनाव सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न था, क्योंकि अगर सब मिलकर भी भाजपा को न हरा पाए तो 2019 के लिए उनके सामने क्या उम्मीद बचेगी?
भाजपा ने कैराना लोकसभा सीट से स्व. हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को मैदान में उतारा था, जबकि रालोद ने तबस्सुम हसन को प्रत्य़ाशी बनाया। दोनों ही प्रत्य़ाशियों का परिवार राजनीतिक रहा है। लेकिन मृगांका सिंह पिछला विधानसभा चुनाव हार गईं थी, उसके बाद भी भाजपा ने उनको अपना प्रत्य़ाशी बनाने से गुरेज नहीं किया। जिसका कारण यह था कि हुकुम सिंह ने कैराना में पलायन का मुद्दा उठाया था, जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिला और उसे लोकसभा चुनाव में जीत हासिल हुई। इसके अलावा मुजफ्फरनगर में सपा सरकार में जो दंगे हुए उसका भी फायदा भाजपा को हुआ था।
लेकिन भारतीय जनता पार्टी से निपटने के लिए सपा-बसपा-रालोद-कांग्रेस-आप ने मिलकर के यह सीट रालोद को सौंप दी। उसके बाद से चौधरी अजित सिंह अपने पिता पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह के फॉर्मूले को अपनाया। चौधरी अजित सिंह ने किसानों को एकजुट करने की कोशिश की। किसान किसी भी जाति धर्म का हो। उसकी जो समस्यायें हैं उस पर बात की जाए और उसकी समस्याय़ों का निस्तारण किया जाए। यह फॉर्मूला हिट कर गया। अभी मुजफ्फरनगर दंगे की आंच सुलग रही थी। वह अब धीरे-धीरे बुझने लगी है। यह बात चौधरी जयंत सिंह के उस बयान में छिपी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जिन्ना हारा और गन्ना जीता। इसका मतलब साफ था कि नफरत फैलाने वालों की हार हो गई है और यहां की जो समस्या है उसके बारे में जो काम करेगा जनता उसका साथ देगी।
इस चुनाव में यह देखा गया कि मुसलमान और जाट एक साथ आ गए। इनके एक साथ आ जाने से भारतीय जनता पार्टी का जो वोट बैंक था उसके हाथ से फिसल गया। रालोद की यह सोच रही है कि नफरत की राजनीति करने वालों को कत्तई सफल नहीं होने दिया जाएगा। इससे निपटने का सबसे हिट फॉर्मूला अपनाकर किसानों को एक साथ करके अपनी जीत पक्की कर ली। जिसको बड़े-बड़े राजनीति के चाणक्य समझने में गच्चा खा गए। भाजपा प्रत्य़ाशी मृगांका सिंह ने कहा है कि गठबंधन भाजपा पर भारी पड़ गया और हम चुनाव हार गए।
कयास तो यहां तक लगाए जा रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में अगर चौधरी चरण सिंह के इस फॉर्मूले पर रालोद काम करता रहा तो गठबंधन के साथ बार्गेनिंग की स्थिति में आ जाएगा। पश्चिम में पहले भी रालोद का प्रभाव था, लेकिन दंगों की आंच में उसका प्रभाव झुलस गया था। अब उस आंच की लौ बुझती दिख रही है। लोगों को यह लगने लगा है कि हम सब एक हैं और इलाके में सौहार्द्र कायम हो रहा है। भाजपा के भड़काऊ भाषण और बहकावे वाली बातें काम में नहीं आ रही हैं। कैराना उपचुनाव चौधरी अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी के लिए राजनीतिक अस्तित्व का सवाल बन गया था, इसी के मद्देनज़र उन्होंने पूरी ताकत वहां झोंक दी थी।
सपा के लोगों ने भी इसमें उनकी भरपूर मदद करके चरण सिंह के ज़माने में कारगर रहे जाट-मुस्लिम-यादव समीकरण को एक बार फिर से कारगर बनाने की गरज से पूरी ताकत लगा दी थी। बसपा लोकसभा हो या विधानभा के उप-चुनाव नहीं लड़ती। शुरुआत में कुछ संशय बनाने के बाद मतदान के दो दिन बाद मायावती ने अपने नेताओं-कोआर्डिनेटरों को राष्ट्रीय लोक दल और सपा के उम्मीदवारों के समर्थन का स्पष्ट संदेश दे दिया था। नतीजे बताते हैं कि विपक्ष की यह रणनीति कारगर रही।
योगी आदित्यनाथ कैबिनेट के आधे से अधिक मंत्री, सांसद, विधायक, भाजपा के केंद्रीय नेता वहां लगातार डेरा डाले रहे। यहां तक कि मतदान से एक दिन पहले आधे अधूरे एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के नाम पर रोड शो करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कैराना से सटे बागपत में बड़ी रैली को संबोधित किया था। मतदाताओं को लुभाने की हर संभव कोशिशें की गई थीं। लेकिन गठबंधन का गणित भाजपा को हराने में कामयाब हो गया।
गौरतलब है कि कैराना वही संसदीय क्षेत्र हैं जहां आदित्यनाथ और तत्कालीन सांसद हुकुम सिंह ने मिलकर ‘हिंदुओं के पलायन’ को राजनीतिक मुद्दा बनाया था। हालांकि वहां विधानसभा चुनाव में भाजपा लहर के बावजूद मृगांका सिंह बुरी तरह हार गई थीं।